सोमवार, 21 नवंबर 2011

चाँद से बातें

मेरी खामोशियाँ अक्सर चाँद से बातें करती है.
रात की चादर तले बेचैन सी बातें करती है.
परत दर परत खुलते जाते है कई ऱाज मेरे.
चाँद की रौशनी इसी से तो बढ़ती जाती है.
 
 
मेरी प्यारी बातों से ही तो चाँद का पोषण होता है .
जिससे चाँद का तन्हा जीवन रोशन होता है. 
पर उसके जीवन में भी तो काल रात्रि आती है. 
जब दुबक जाता है चाँद तो मुझे उबकाई सी क्यों होती है. 
जब पुनः वह चाँद बुलाने पे मेरे , निकालता चंद्कोर बन  ,
रौशनी मध्यम होती है , फिर से बातें होती है 
वह चहकता है , महकता है , धीरे - धीरे बड़ा होता है 
फिर वह रात आती है , जब चाँद की तारीफ होती है 
चांदनी मुझसे जलती है , तभी तो टिमटिम करती है.
 
 
पर ऐ चांदनी ना हो नाराज हमसे,
हम तो बस एक दूसरे के गम बाँट लेते है 
कुछ चाँद हस लेता है ,कुछ में मुस्कुरा लेती हुं 
कुछ वो रो लेता है कुछ में रो लेती हुं
कुछ ज़ख्म वो सी लेता है कुछ ज़ख्म मैं बयां करती  हुं 
कुछ वो ताज़ा हो जाता है कुछ मै हल्का महसूस करती हुं 
बातों बातों में रात यू ही गुज़र जाती है
हम दोनों की  यू ही रातों में बातें होती है 
मेरी खामोशियाँ अक्सर चाँद से बातें करती है 

बुधवार, 14 सितंबर 2011

शोभायात्रा


रविवार का दिन था, मैं सोकर ही देर से उठी थी। सप्ताह में यही एक तो दिन
मिलता है छुट्टी का, जब मैं चाहकर भी बिस्तर का मोह छोड़ नहीं पाती,
इसलिए मैं अलसाई सी बिस्तर में दुबकी हुयी थी। आँख खुली तो प्रात: के
८.३० बज रहे थे, ना जाने कितने सारे काम बिस्तर में पड़े-पड़े ही याद आ
रहें थे। बेड शीट्स बदलनी है, परदे बदलने है, जाले निकालने है, फर्नीचर
पर न जाने धुल की कितनी परते जमी है, जिन्हे साफ करनी है...।वैसे कहने को
तो इतवार छुट्टी  का दिन आराम का रहा, पर वास्तव मे ऐसा हो नही पाता ।
पूरे हफ्ते भर के काम की कसक जैसे इस एक ही दिन मे सिमट जाता है. ऊपर से
गर्मी भी द्वार पर दस्तक दे चुकी है। इलेक्ट्रिशियन को भी आज ही बुलाया
है, वो भी तो १०.३० बजे आने वाला है, कूलर जो लगवाना है।

ठण्ड में जो स्वेटर निकाले थे, वो भी तो मशीन में धोने है, मैने ही बाई
को उसे धोने से मना कर दिया था। दरअसल, स्वेटर इतने महंगे है कि अगर एक
का रंग भी दूसरे पर चढ़ गया तो तो गये काम से । स्वेटर गया तो गया, सुधीर
की डान्ट सुननी पडेगी सो अलग। बाई तो  रगड़-रगड़ कर इतनी बेदर्दी से धोती
है कि पूरी शाइनिंग ही चली जाती है । अभी पिछले साल की ही तो बात है,
मैंने सुधीर के लिए एक पुलोवर लाया था, खूब खिलता था सुधीर पर, अनजाने
में धोने के कपड़ो में चला गया, बाई ने ऐसा धोया की दोबारा पहनने लायक ही
नहीं रहा। तब से इस मामले में मैं थोड़ी कौन्शिअस हो गई हूँ  ।  वैसे तो
छुट्टी के दिन मेरा भी जी चाहता है कि कोई हाथो हाथ गरमा-गरम खाना खिलाये
और मैं भी टी. व्ही. के सामने पैर पसार बैठ इत्मीनान से सीरियल का लुत्फ
उठाऊ, पर इस कम्बख्त किस्मत में आराम कहाँ?

कभी कभी तो मन मे मेरे भीतर टीस सी उठने लग जाती है। आखिर मैं भी तो रोज
ऑफिस जाती हूँ , थकी हारी लौटती हू, फिर घर के सारे काम-काज निपटाती हू.
घर के बाहर के लगभग सारे काम भी मैं ही करती हू । सुधीर को कितनी बार कहा
है कि ये हम दोनों का घर है, एक हाथ से ताली नहीं बजती. पर मजाल है इनके
कानों में जूं  तक कभी रेन्ग जाये ।

खैर! कभी - कभी लगता है कुछ गलती मेरी भी है, सारे काम मैंने ही खुद पर
ओढ़ लिए है। सुधीर ने तो कई बार मुझसे कहा, कि तुम नौकरी छोड़ दो, खुद की
सेहत पर ध्यान दो, कभी देखा है खुद की सूरत को आईने मे। तन है कि सूखता
जा रहा है और मन तो जाने कब का सूख चुका। तुम्हे क्या जरुरत है नौकरी की,
५ - ६ हजार रुपयों के लिए अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हो । देखो
सुधा! मेरी जॉब तो तुम जानते हो, मै सुबह ९ बजे घर से निकल जाता हू और
मेरे आने का तो कोई टाइम नहीं है, घर में बच्चे हम दोनों को मिस करते है।
अपने बच्चो को टाइम देने के बजाय तुम दूसरों के बच्चो को सुबह से शाम तक
पड़ाने जाती हो। पर सुधीर की इन बातो को सुनकर मुझे और गुस्सा आता है
,आखिर मैं ही क्यों कंप्रोमाइज़ करू? और फिर हमारा झगडा शुरू हो जाता है।

पर इन झगडो से फायदा भी क्या? काम तो आखिर मुझे ही करने पडेन्गे,चाहे
रोकर करू या हस कर। मैं एक - एक काम धीरे धीरे निपटाते जा रही थी। बीच
बीच में सुधीर की फरमाइश भी पूरी कर रही थी, कभी चाय, कभी नाश्ता, कभी
पानी. इस दरमिया हम दोनों की फिर से लड़ाई शुरू हो चुकी थी और इस बार तो
मैंने सुधीर को फिर से चाय बना कर देने से मना कर दिया  और भुनभुनाती
हुई वाशिंग मशीन में स्वेटर डालने चली गयी। अचानक तभी ढोल-नगाड़े और
आतिशबाजी की आवाजो के साथ जन समूह का हर्ष और जोश से भरा शोर मुझे सुनाई
दिया,  लगा जैसे कोई बारात जा रही हो । शादियों वाला मौसम भी तो था. आये
दिन बारात घर के सामने से गुजरती, कभी सुबह, में कभी शाम में. मैं भी काम
छोड़ दौड़ी - दौड़ी आँगन में पहुची .

देखा तो, ये कोई बारात नहीं थी, श्री कृष्ण भगवान की शोभायात्रा थी। सबसे
आगे बैंड बाजा वाले, उसके पीछे उल्लास और उमंग में नाचते झूमते लोगो का
जन समूह। कुछ लोग फुगडी खेल रहे थे, कुछ गरबा कर रहे थे, तो कुछ धुनों पर
थिरक रहे थे, मस्ती में झूम रहे थे । फिर एक ट्रक पर कुछ बच्चे झाकी के
तौर पर राधा- कृष्ण , राम - सीता , साईं बाबा आदि देवताओ के भेष में बैठे
थे । सच कितने प्यारे लग रहे थे, उस ट्रक के पीछे ३-४ रिक्शे थे जिस पर
माइक लोड किये थे और हर रिक्शे के पीछे कुछ महिलाओ का समूह था, जो अपनी
ही धुन में रमी भगवान के भजनों का गान करती जा रही थी । सब कुछ उन्मादी था,
किसी को कोई होश नहीं था । सभी भक्ति के रस में बहे जा रहे थे, बच्चा
, बूढ़ा , और जवान सभी एक ही रंग में रंगे थे. कुछ भी स्पष्ट सुनाई नहीं
दे रहा था . सुनाई दे रहा था तो वो था सिर्फ और सिर्फ शोर .

रिक्शो के पीछे लेझीम वाले थे, जो सफ़ेद रंग की धोती और हरी बंडी पहने हुए
थे, कमर पर और सिर पर लाल रंग की धारीदार अंगोछा जैसा बांधा था और सिर पर
मोरपंख भी लगाया था, जो अपनी ही धुन पर नाच रहे थे और उनका साथ दे रही थी
आज की युवा पीढ़ी मतलब उस समाज के कुछ युवा लड़के . लडकिया, जो उनके रंग
में रंग गए थे और उनके जैसा करने की कोशिश कर रहे थे। सब नाच - नाच के
बेहाल हुए जा रहे थे, उनके समाज के कुछ वालिन्टियर्स हाथो में पानी के
पाउच और पिपरमेंट की गोलियों का पेकेट लिए दौड़ रहे थे और सबको बाट रहे
थे।  कुछ लोग ट्रेफिक व्यवस्था देख रहे थे कि ट्रेफिक जाम न हो जाए।  सबसे
आखरी में एक ट्रक और था, जिस पर कृष्ण भगवान की चकाचक करती सुन्दर
मूर्ति थी ऐसा लग रहा था मानो अभी बोल पड़ेगी। मेरा मस्तक श्रद्धा से झुक
गया, उसके पीछे एक पालकी थी जिसमे छोटे से लड्डू गोपाल विराजमान थे ।  उस
समाज के लोग बारी-बारी से पालकी को कंधे पर उठा रहे थे और खुद को धन्य
मान रहे थे। उसके पीछे ३-४ खुली जीप थी, जिस पर कुछ बुजुर्ग बैठे थे और
धीरे-धीरे मंजीरे बजाते भजन गाते मगन हुए जा रहे थे । कोलाहल आगे जा चुका
था. यहाँ सिर्फ मंजीरे की मीठी ध्वनि के साथ कुछ शब्द भी सुनाई दे रहे
थे, छन-छन- छन, टिक-टिक-टिक.

शोभायात्रा आगे बढ़ चुकी थी और पीछे छोड़ गई थी मीठी गोली के रेपर्स, पानी
के पाउच, शरबत के खाली पेपर, गिलास , फूलो के टुकडे, गुलाल का रंग ,
प्रसाद के दाने और इन सबसे अति एक शांत और क्लांत सड़क।

मैं कुछ सोचने पर मजबूर हो गई, लान में रखी कुर्सी पर बैठ गई और सोचने
लगी कि हमारी जिन्दगी भी तो एक शोभायात्रा है. हमारे मन मंदिर में जो
वात्सल्य- प्रेम के रूप में जिस भगवान का वास है उसे हम देखते ही नहीं
है और अपने अपने सिर पर अपने अहम् की शोभायात्रा लिए लिए घूमते रहते है और
जिन्दगी के रास्तो पर खुद ही उलझनों, चिन्ताओ और परेशानियों के दुःख का
कचरा फैलाते जाते है और उस कचरे के साथ हमें रहने की आदत सी हो जाती है
और जब हमारा अहम् संतुष्ट नहीं होता तो हम चिड़चिड़ा उठते है ।

सुधीर सही तो कहते है. मुझे नौकरी छोड़ घर संभालना चाहिए ।  इसलिए नहीं
कि मैं एक औरत हू और मेरा काम घर संभालना है, बल्कि इसलिए भी कि परिवार
और खुद को खुश रखने की जिम्मेदारी भी एक औरत की होती है और इस बड़ी
जिम्मेदारी का निर्वाह केवल एक स्त्री ही कर सकती है] क्योंकि उसके पास
ईश्वर का दिया करूणा, ममता, प्रेम, वात्सल्य जैसे स्त्रियोचित गुणों का
अनमोल खजाना होता है। जीवन में पति पत्नी की दो जिम्मेदारिया होती है,
परिवार को खुश रखना और उनकी सुख सुविधाओ का ध्यान रखना।  सुख सुविधाओ का
ध्यान रखने के लिए पैसे की जरुरत होती है, जो सुधीर पूरी कर रहे है तो
उनकी एक जिम्मेदारी मैं पूरी करुँगी घर पर रहकर, खुद की और परिवार की
देखभाल करके ।  पता नहीं मैं अब तक यह क्यों सोचती थी कि जो स्त्री नौकरी
पेशा नहीं होती, उनकी पढाई व्यर्थ है पर आज लग रहा मैं गलत थी । अब मैं
समझ गई हूं कि घर को संभालना और खुश रखना सबसे बड़ा जॉब है .हम जॉब करते
हुए घर तो संभाल लेते है , पर काम का बोझ अधिक होने पर हम छोटी छोटी
खुशियां मिस कर देते है ।

नहीं अब ऐसा नहीं होगा ।  आज भगवान श्री कृष्ण के कारण, जिनके सामने मैं
नतमस्तक हुई थी, मेरे अन्दर सब कुछ शांत हो चुका था ।  मेरे अहम् की
शोभायात्रा आगे निकल चुकी थी  और परेशानियों, विषादो, अवसादो का कचरा
मेरे जीवन पथ पर काफी पीछे छुट चुका था .

आज मैं बेहद खुश थी।